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सर सैयद- डे पर विशेष श्रृद्धांजली


सर सैयद अहमद ख़ान (17 अक्टूबर 1817 – 27 मार्च 1898) हिन्दुस्तानी शिक्षक और नेता थे जिन्होंने भारत के मुसलमानों के लिए आधुनिक शिक्षा की शुरुआत की। इन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना की । उनके प्रयासों से अलीगढ़ क्रांति की शुरुआत हुई, जिसमें शामिल बुद्धिजीवियों और नेताओं ने भारतीय मुसलमानों को शिक्षित करने का काम किया। यह अपने समय के सबसे प्रभावशाली मुस्लिम नेता थे। उन्होंने उर्दू को भारतीय मुसलमानों की सामूहिक भाषा बनाने पर ज़ोर दिया।


सर सैयद अहमद खां का प्रारंभिक जीवन एवं शिक्षा


सर सैयद अहमद ख़ाँ का जन्म 17 अक्टूबर 1817 में दिल्ली के सादात सैयद, ख़ानदान में हुआ था। उन्हे बचपन से ही पढ़ने लिखने का शौक़ था और उन पर पिता की तुलना में माँ का विशेष प्रभाव था। माँ के कुशल पालन पोषण और उनसे मिले संस्कारों का असर सर सैयद अहमद खां के बाद के दिनों में स्पष्ट दिखाई दिया। जब वह सामाजिक उत्थान के क्षेत्र में आए, उस समय आपकी आयु 22 वर्ष की थी। तब आपके पिता की मृत्यु हो गई । पिता की मृत्यु के बाद परिवार को आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा और थोड़ी सी शिक्षा के बाद ही उन्हें आजीविका कमाने में लगना पड़ा। उन्होने 1830 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी में लिपिक के पद पर काम करना शुरू किया। 1841 ई. में मैनपुरी में उप-न्यायाधीश की योग्यता हासिल की और विभिन्न स्थानों पर न्यायिक विभागों में काम किया। हालांकि सर्वोच्च ओहदे पर होने के बावज़ूद, अपनी सारी ज़िन्दगी उन्होने एक साधारण इन्सान की हैसियत से गुज़ारी।

सर सैयद अहमद ख़ान (17 अक्टूबर 1817 – 27 मार्च 1898)

सर सैयद अहमद खां में राष्ट्रभक्ति की भावना


1857 की महाक्रान्ति और उसकी असफलता के दुष्परिणाम उन्होंने अपनी आँखों से देखे । उनका घर तबाह हो गया, निकट सम्बन्धियों का क़त्ल हुआ, उनकी माँ जान बचाकर एक सप्ताह तक घोड़े के अस्तबल में छुपी रहीं। अपने परिवार की इस बर्बादी को देखकर उनका मन विचलित हो गया और उनके दिलो-दिमाग़ में राष्ट्रभक्ति की लहर करवटें लेने लगीं। इस बेचैनी से उन्होंने परेशान होकर भारत छोड़ने और मिस्र में बसने का फ़ैसला किया। अंग्रेज़ों ने उनको अपनी ओर करने के लिए मीर सादिक़ और मीर रुस्तम अली को उनके पास भेजा और उन्हे ताल्लुका जहानाबाद देने का लालच दिया। यह ऐसा मौक़ा था कि वे इनके जाल में फँस सकते थे। वे धनाढ्य की ज़िन्दगी बसर कर सकते थे, लेकिन वे बहुत ही बुद्धिमान और समझदार व्यक्ति थे। उन्होंने उस वक़्त लालच को बुरी बला समझकर वह प्रस्ताव ठुकरा दिया और राष्ट्रभक्ति को अपनाना बेहतर समझा।
बाद में उन्होंने यह महसूस किया कि अगर भारत के मुसलमानों को इस परिस्थिति से नहीं निकाला गया तो एक दिन हमारी क़ौम तबाह और बर्बाद हो जाएगी और वह कभी भी उठ न सकेगी। इसलिए उन्होंने मिस्र जाने का इरादा बदल दिया और कल्याण व अस्तित्व की मशाल लेकर अपनी क़ौम और मुल्क़ की तरक़्क़ी की तरफ़ बढ़ने लगे। सर सैयद अहमद खां इस्लामी शिक्षा व संस्कृति के चाहने वाले थे। उनकी दूरदृष्टि अंग्रेज़ों के षड़यंत्र से अच्छी तरह से वाक़िफ़ थी। उन्हें मालूम था कि अंग्रेज़ी हुकूमत भारत पर स्थापित हो चुकी है और उन्हें हराने के लिए आपको शिक्षा का मैदान बेहतर लगा। इसलिए अपने बेहतरीन लेखों के माध्यम से क़ौम में शिक्षा व संस्कृति की भावना जगाने की सर सैयद अहमद खां ने कोशिश की ताकि शैक्षिक मैदान में कोई हमारी क़ौम पर हावी न हो सके। मुसलमान उन्हें कुफ्र का फ़तवा देते रहे, बावज़ूद इसके नरमी से उन्हें समझाने की कोशिश करते रहे। वे अच्छी तरह से जानते थे इसलिए उनकी बातों की परवाह किये बिना वे अपनी मन्ज़िल पर पहुँचने के लिए कोशिश करते रहे। आज मुस्लिम क़ौम ये बात स्वीकार करती है कि सर सैयद अहमद खाँ ने क़ौम के लिए क्या कुछ नहीं किया।

संस्थाओं की स्थापना


सर सैयद अहमद खां ने जो-जो संस्थाएं क़ायम की हैं वे भी हमारे सामने हैं उन में से कुछ इस तरह से है-

उन्होने 1886 में ऑल इंडिया मुहमडन ऐजुकेशनल कॉन्फ़्रेंस का गठन किया, जिसके वार्षिक सम्मेलन में मुसलमानों की शिक्षा को बढ़ावा देने तथा उन्हें एक साझा मंच उपलब्ध कराने के लिए विभिन्न स्थानों पर आयोजित किए जाते थे।
मई 1875 में उन्होने अलीगढ़ में मदरसतुल-उलूम नाम की एक मुस्लिम स्कूल की स्थापना की और 1876 में सेवानिवृत्ति के बाद उन्होने इसे कॉलेज में बदलने की बुनियाद रखी। उनकी परियोजनाओं के प्रति रूढ़िवादी विरोध के बावज़ूद कॉलेज ने तेज़ी से प्रगति की और 1920 में यह अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में परिवर्तित हो गयी। उर्दू ज़बान को सर सैयद ने ज़िंदा रखा जिसकी वजह से देश की अज़ादी में उर्दू तहरीक ने अहम रोल अदा किया।

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