सलाम उस पर कि जिसने बेकसों की दस्तगीरी की
सलाम उस पर कि जिसने बादशाही में फ़क़ीरी की

सलाम उस पर कि असरारे मुहब्बत जिसने सिखलाए
सलाम उस पर कि जिसने ज़ख़्म खाकर फूल बरसाए

सलाम उस पर कि जिसने ख़ूँ के प्यासों को क़बाएँ दीं
सलाम उस पर कि जिसने गालियां सुनकर दुआएं दीं

सलाम उस पर कि दुश्मन को हयाते जावेदाँ दे दी
सलाम उस पर, अबू सुफ़ियान को जिसने अमां दे दी

सलाम उस पर कि जिसका ज़िक्र है सारे सहाइफ़ में
सलाम उस पर, हुआ मजरूह जो बाज़ारे ताइफ में

सलाम उस पर, वतन के लोग जिसको तंग करते थे
सलाम उस पर कि घर वाले भी जिससे जंग करते थे

सलाम उस पर कि जिसके घर में चांदी थी न सोना था
सलाम उस पर कि टूटा बोरिया जिसका बिछौना था

सलाम उस पर जो सच्चाई की ख़ातिर दुख उठाता था
सलाम उस पर, जो भूका रह के औरों को खिलाता था

सलाम उस पर, जो उम्मत के लिए रातों को रोता था
सलाम उस पर, जो फ़र्शे ख़ाक पर जाड़े में सोता था

सलाम उस पर जो दुनिया के लिए रहमत ही रहमत है
सलाम उस पर कि जिसकी ज़ात फ़ख़्रे आदमियत है

सलाम उस पर कि जिसने झोलियाँ भर दीं फ़क़ीरों की
सलाम उस पर कि मुशकें खोल दीं जिसने असीरों की

सलाम उस पर कि जिसकी चांद तारों ने गवाही दी
सलाम उस पर कि जिसकी संग पारों ने गवाही दी

सलाम उस पर, शिकस्तें जिसने दीं बातिल की फ़ौजों को
सलाम उस पर कि जिसकी संग पारों ने गवाही दी

सलाम उस पर कि जिसने ज़िंदगी का राज़ समझाया
सलाम उस पर कि जो ख़ुद बद्र के मैदान में आया

सलाम उस पर कि जिसका नाम लेकर उसके शैदाई
उलट देते हैं तख़्ते क़ैसरियत, औजे दाराई

सलाम उसपर कि जिसके नाम लेवा हर ज़माने में
बढ़ा देते हैं टुकड़ा, सरफ़रोशी के फ़साने में

सलाम उस ज़ात पर, जिसके परेशां हाल दीवाने
सुना सकते हैं अब भी ख़ालिद-ओ-हैदर के अफ़साने

दुरूद उस पर कि जिसकी बज़्म में क़िस्मत नहीं सोती
दुरूद उस पर कि जिसके ज़िक्र से सीरी नहीं होती

दुरूद उस पर कि जिसके तज़किरे हैं पाक बाज़ों में
दुरूद उस पर कि जिसका नाम लेते हैं नमाज़ों में

दुरूद उस पर, जिसे शम्म-ए शबिस्ताने अज़ल कहिए
दुरूद उस ज़ात पर, फ़ख़्रे बनी आदम जिसे कहिए