बीकानेर। पर्यटन लेखक संघ-महफिल-ए-अदब के साप्ताहिक अदबी कार्यक्रम के अंतर्गत रविवार को होटल मरुधर हेरिटेज में 1935 में बीकानेर में लिखी उर्दू रामायण का वाचन किया गया। अध्यक्षता करते हुए शिक्षा एवं संस्कृति मंत्री डॉ बी डी कल्ला ने कहा कि बीकानेर में लिखी उर्दू रामायण शहर की सांझी संस्कृति की प्रतीक है और इस दौर में अधिक प्रासंगिक है। उन्होंने कहा कि मरहूम बादशाह हुसैन राना लखनवी ने उर्दू रामायण लिख कर रामायण के सन्देश को जन साधारण तक पहुंचाने का कार्य किया है। मुख्य अतिथि के रूप में बोलते हुए पूर्व महापौर हाजी मक़सूद अहमद ने कहा कि 87 वर्ष पूर्व लिखी उर्दू रामायण का महत्व आज भी बरक़रार है। यह सरल और सहज भाषा में लिखी हुई है। इसीलिए इसे आम आदमी भी समझ सकता है। उर्दू रामायण का वाचन वरिष्ठ शाइर ज़ाकिर अदीब, असद अली असद व डॉ नासिर जैदी ने किया। श्रोताओं ने इसके बहुत से शेरों पर खूब दाद दी।


देखने को ज़ाहिरा हनुमान जी की चल गई,
वरना सीता की ये आहें थी कि लंका जल गई।


प्रारम्भ में आयोजक संस्था के डॉ ज़िया उल हसन क़ादरी ने बताया कि बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के लिए मौलवी बादशाह हुसैन खान राना लखनवी ने रियासतकाल में ये नज़्म लिखी जिसे विश्वविद्यालय ने गोल्ड मेडल से नवाजा और महाराजा गंगा सिंह जी ने इसे स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल किया।

यह बादशाह हुसैन राणा कौन थे और किस तरह से यह परंपरा दिवाली के रोज़ ही पढ़ने की बीकानेर में शुरू हुई आईए इस रिवायत के बारे में जानते हैं।
सोलहवीं शताब्दी में बने जूनागढ़ क़िले के लिए मशहूर, राजस्थान प्रदेश के बीकानेर शहर में हर साल दिवाली के शुभ अवसर पर रामायण का पाठ होता है। इसमें हिंदू-मुस्लमान और दूसरे मज़ाहिब के लोग भी शामिल होते हैं और जिस रामायण को पढ़ा जाता है वह उर्दू में होती है। उर्दू की रामायण हर दिवाली में पढ़ने की रवायत साल 1936 से चली आ रही है। क्या है इस रवायत की कहानी आईए वो भी जानते हैं।


लखनऊ के मौलवी बादशाह हुसैन राणा ने शुरु की थी रिवायत। बात साल 1935 की है, लखनऊ के एक उर्दूदां थे, नाम था बादशाह हुसैन राणा लखनवी। उन दिनों वे राजस्थान की बीकानेर रियासत में महाराज गंगा सिंह जी के यहां उर्दू.फारसी में आने वाले खतों का तर्जुमा किया करते थे। राणा साहब की अदब पर भी अच्छी पकड़ थी और स्थानीय लोग भी उन्हें खूब इज़्ज़त और एहतराम की नज़र से देखते थे। महाराजा गंगा सिंह जी के एक खास दोस्त बनारस में रहते थे। एक रोज़ उन्होंने उनसे बताया कि बनारस में एक बड़ा मुकाबला हो रहा है जिसमें रामायण को कविता या ग़ज़ल की शक्ल में अपनी मातृभाषा में लिखना है, जो तर्जुमा सबसे अच्छा होगा उसे विजेता घोषित किया जाएगा। यह भी बताया गया कि तमाम रियासतों के राजा अपने अपने लोगों को इस मुकाबले में शामिल करा रहे हैं। महाराजा गंगा सिंह जी ने इस अदबी मुकाबले में अपनी तरफ से बादशाह हुसैन राणा लखनवी का नाम दे दिया और राणा साहब से कह दिया कि उन्हें ये मुक़ाबला जीत कर बीकानेर रियासत का सर ऊंचा करना है। राणा साहब के सामने बड़ी मुश्किल की घड़ी आ गई थी। रामायण तो कभी पढ़ी नहीं थी, उर्दू में लिखें कैसे, लेकिन बात बीकानेर की आन-बान-शान की थी। मुक़ाबले में दिन भी कम थे, लिहाज़ा उन्हें एक तरकीब सूझी। उन्होंने अपने एक पुराने दोस्त मनोहर शिवपुरी, जो कि कश्मीरी पंडित थे, से राब्ता क़ायम किया और उन्हें अपनी परेशानी बताई। पंडित मनोहर शिवपुरी ने कहा कि इसका इकलौता रास्ता यही है , मैं रामायण के पाठ पढ़ता जाऊं और आप उन्हें तर्जुमा करके उर्दू में दर्ज करते जाएं। राणा साहब को ये बात ठीक लगी। अगली सुबह से ये रोज़ का मामूल हो गया। शिवपुरी रामायण पढ़ते उसका मतलब समझाते और राणा साहब उसे उर्दू में दर्ज कर लेते। ये सिलसिला तब तक चलता रहा जब तक पूरा तर्जुमा मुकम्मल नहीं हो गया और इस तरह रामायण को समेट कर ग़ज़ल के तौर पर नौ पन्नों में लिखा गया। इस क़लमकारी ने बनारस का वोह मुकाबला जीत लिया। महाराजा गंगा सिंह जी ने राणा साहब को खूबसूरत ग़ज़ल लिखने के लिए कई इनामात से भी नवाज़ा। पूरे बीकानेर में उस रोज़ जश्न हुआ और दिवाली की शाम उसी ग़ज़ल को, जो कि पूरे रामायण की तर्जुमानी थी, पढ़ा गया। आहिस्ता-आहिस्ता यह बीकानेर की रिवायत बन गई जो आजतक चली आ रही है।

इस अवसर पर वरिष्ठ पत्रकार अशोक माथुर,प्रो अजय जोशी,प्रो नरसिंह बिनानी, डॉ जगदीश दान बारहठ,एडीओ सुनील बोड़ा,संगीता सेठी, मधुरिमा सिंह,कृष्णा वर्मा,शारदा भारद्वाज,इंजीनियर गिरिराज पारीक,पूनमचंद गोदारा, रहमान बादशाह,माजिद खान ग़ौरी,शिवकुमार वर्मा,मुकुल वर्मा,अब्दुल शकूर बीकानवी,अंकिता माथुर,मास्टर रमज़ान अली व डॉ वली मुहम्मद गौरी सहित बड़ी संख्या में गणमान्य लोग उपस्थित थे। संचालन डॉ जिया उल हसन क़ादरी ने किया।