Saturday, July 27, 2024
Google search engine
Homeसाहित्यइतिहासजंग-ए-आज़ादी के मुजाहिद अशफ़ाक़ुल्लाह खान की पैदाइश पर ख़ास रिपोर्ट

जंग-ए-आज़ादी के मुजाहिद अशफ़ाक़ुल्लाह खान की पैदाइश पर ख़ास रिपोर्ट

पठान खानदान से ताल्लुक़ रखने वाले अशफ़ाक उल्ला खां का जन्म 22 अक्टूबर 1900 को भारत के शाहजहाँपुर में शफ़िक़ुल्लाह खान और मज़रुनिस्सा के घर हुआ। यह एक मुस्लिम पठान परिवार के खैबर जनजाति में हुआ था। वो छः भाई बहनों में सबसे छोटे थे।
वर्ष 1920 में महात्मा गांधी ने भारत में अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध असहयोग आन्दोलन आरम्भ किया, लेकिन वर्ष 1922 में चौरी-चौरा कांड के बाद महात्मा गांधी ने आन्दोलन वापस ले लिया। इस स्थिति में खान सहित विभिन्न युवा लोग खिन्न हो गए । इसके बाद खान ने समान विचारों वाले स्वतंत्रता सेनानियों से मिलकर नया संगठन बनाने का निर्णय लिया और वर्ष 1924 में हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का गठन किया।


ककोरी रेल डकैती ( काकोरी कांड)


अपने आन्दोलन को आगे बढ़ाने के लिए, हथियार खरीदने और अपने काम को आगे बढ़ाने के लिए आवश्यक गोलाबारूद इकट्ठा करने के लिए, हिन्दुस्तानी सोशिलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के सभी क्रान्तिकारियों ने शाहजहाँपुर में 8 अगस्त 1925 को एक बैठक की। एक लम्बी विवेचना के पश्चात् रेलगाडी में जा रहे सरकारी खजाने को लूटने का कार्यक्रम बना। 9 अगस्त 1925 को अशफ़ाक़ुल्लाह खान सहित उनके क्रान्तिकारी साथियों राम प्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, रोशन सिंह, शचीन्द्रनाथ बख्शी, चन्द्रशेखर आज़ाद, केशव चक्रवर्ती, बनवारी लाल, मुरारी शर्मा, मुकुन्दी लाल और मन्मथनाथ गुप्त ने मिलकर लखनऊ के निकट काकोरी में रेलगाड़ी में जा रहा अंग्रेजी हुकूमत का खजाना लूट लिया। रेलगाडी के लूटे जाने के एक माह बाद भी किसी भी लुटेरे की गिरफ़्तारी नहीं हो सकी। जबकि ब्रिटेन सरकार ने एक विस्तृत जाँच का जाल शुरू कर दिया था। 26 अक्टूबर 1925 की एक सुबह राम प्रसाद बिस्मिल को पुलिस ने पकड़ लिया और अशफ़ाक़ुल्लाह खान ही अकेले ऐसे थे जिन से का पुलिस कोई सुराग़ नहीं लगा सकी। वो छुपते हुये बिहार से बनारस चले गए। जहाँ उन्होंने दस माह तक एक अभियांत्रिकी कंपनी में काम किया। उन्होंने आगे के अध्ययन के लिए विदेश जाने और लाला हरदयाल से मिलने की योजना बनाई जिससे आज़ादी की लड़ाई को आगे बढ़ाया जा सके और वह दिल्ली चले गये। दिल्ली में उन्होंने अपने एक पठान दोस्त की सहायता ली जो पहले उनका सहपाठी रह चुका था। दोस्त ने उन्हें धोखा देते हुए उनका ठिकाना पुलिस को बता दिया और 17 जुलाई 1926 की सुबह पुलिस उनके घर आयी तथा उन्हें गिरफ्तार किया। गिरफ्तार करने के बाद अंग्रेजी हुकूमत ने खान को सरकारी गवाह बनाने के लिए बहुत कोशिश की और कहा की अगर हिन्दुस्तान आज़ाद हो भी गया तो उस पर हिन्दुओं का राज होगा और मुसलामानों को कुछ भी नहीं मिलेगा। इस पर अशफ़ाक़ुल्लाह ने अंग्रेज़ों को जवाब दिया कि तुम लोग हिन्दू और मुसलामानों में फूट डाल कर आज़ादी की लड़ाई को नहीं दबा सकते। आज़ादी की लड़ाई शुरू हो चुकी है अब इसे कोई नहीं रोक सकता, हिन्दुस्तान आज़ाद हो कर रहेगा। तत्कालीन जेलर तस्द्दुक़ हुसैन ने मज़हबी सहारा लेते हुए राम प्रसाद बिस्मिल और अशफ़ाक़ुल्लाह खान की दोस्ती को तोड़ने की पूरी कोशिश की लेकिन उसे सफलता नहीं मिली बल्कि अशफ़ाक़ुल्लाह खान ने कहा कि मैं अपने दोस्तों के खिलाफ गवाही नहीं दे सकता।
अशफ़ाक़ुल्लाह खान को फैज़ाबाद कारावास में रखा गया और उनके विरुद्ध एक मामला आरम्भ किया गया। उनके भाई रियासतुल्लाह खान उनके कानूनी अधिवक्ता थे। कारावास के दौरान अशफ़ाक़ुल्लाह खान ने क़ुरान की तिलावत की और नियमित तौर पर नमाज पढ़ना शुरू कर दिया तथा इस्लामी माह रमज़ान में कठोरता से रोजे रखना आरम्भ कर दिया। काकोरी डकैती का मामला बिस्मिल, खान, राजेन्द्र लाहिड़ी और ठाकुर रोशन सिंह को फांसी की सजा सुनाकर पूरा किया गया।


निधन और विरासत


खान को 19 दिसम्बर 1927 को फ़ैज़ाबाद कारावास में फ़ांसी की सजा दी गयी। उनके क्रान्तिकारी व्यक्तित्व, प्रेम, स्पष्ट सोच, अडिग साहस, दृढ़ निश्चय और निष्ठा के कारण लोगों के लिए वो शहीद माने गये।
यह क्रांतिकारी व्यक्ति मातृभूमि के प्रति अपने प्रेम, अपनी स्पष्ट सोच, अडिग साहस, दृढ़ता और निष्ठा के कारण अपने लोगों के बीच शहीद और एक किंवदंती बन गया।


मिडिया का रोल


खान और उसके साथियों के कार्य को हिन्दी फ़िल्म रंग दे बसंती 2006 में फ़िल्माया गया है जिसमें खान का अभिनय कुणाल कपूर ने किया। स्टार भारत की टेलीविजन एपिसोड चन्द्रशेखर में चेतन्य अदीब ने खान का अभिनय किया है। वर्ष 2014 में डीडी उर्दू पर भारतीय टेलीविजन एपिसोड मुजाहिद-ए-आज़ादी, अशफ़ाक़ुल्लाह खान प्रसारित की गयी जिसमें गौरव नंदा ने इनका अभिनय किया। अंग्रेजी शासन से देश को आजाद कराने के लिए अपनी जान का नज़राना देने वाले महान क्रांतिकारी जिसको अशफ़ाक़ुल्लाह खान के नाम से दुनिया जानती है, वहीं भारत के लोग भी अपने क्रांतिकारी को आज के दिन याद करते हैं। अशफ़ाक़ुल्लाह खान ना सिर्फ एक निर्भय और प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी थे बल्कि उर्दू ज़बान के एक बेहतरीन शायर भी थे।

अपने उपनाम वारसी और हसरत से वह शायरी लिखते थे, लेकिन वह हिंदी और अंग्रेजी में भी लिखते थे। अपने अंतिम दिनों में उन्होंने कुछ बहुत प्रभावी पंक्तियां लिखीं, जो उनके बाद स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे लोगों के लिए मार्गदर्शक साबित हुईं। अशफ़ाक़ुल्लाह खान की शायरी भारत की मुहब्बत में इस तरह से लिखी गई-

किये थे काम हमने भी जो कुछ भी हमसे बन पाए,
ये बातें तब की हैं आज़ाद थे और था शबाब अपना,
मगर अब तो जो कुछ भी हैं उम्मीदें बस वो तुमसे हैं,
जबां तुम हो, लबे-बाम आ चुका है आफताब अपना।
जाऊंगा खाली हाथ मगर ये दर्द साथ ही जायेगा,
जाने किस दिन हिन्दुस्तान आज़ाद वतन कहलायेगा।
बिस्मिल हिन्दू हैं कहते हैं फिर आऊंगा, फिर आऊंगा,
फिर आकर के ऐ भारत मां तुझको आज़ाद कराऊंगा,
जी करता है मैं भी कह दूँ पर मजहब से बंध जाता हूँ,
मैं मुसलमान हूं पुनर्जन्म की बात नहीं कर पाता हूं,
हां खुदा अगर मिल गया कहीं अपनी झोली फैला दूंगा,
और जन्नत के बदले उससे यक पुनर्जन्म ही माँगूंगा।

RELATED ARTICLES
- Advertisment -
Google search engine

Most Popular

Recent Comments